हम सब ने फुटपाथ पर खड़े होकर अपना पेट पलते बच्चे जरूर देखे होंगे। क्या वे पढ़-लिखकर बड़ा आदमी नही बनना चाहते? क्या वे खेलना नहीं चाहते, अपने बचपन को सेलिब्रेट नहीं करना चाहते?
भूखे पेट, मचलते मन से,
आसमान में ताक रहा है,
बिकते बचपन का अंधियारा,
नंगे तन से झाँक रहा है।
सुनसान सब पड़े रास्ते,
जाड़ा हाड़ कँपाने वाला,
छिपती धूप, शरद का मौसम,
हाथ-पाँव पिघलाने वाला।
ठिठुरा, किकुड़ा देह काँपता,
आयु कुल सात आठ बरस है,
पढ़ने जाने का सपना है,
किन्तु वह क्या करे, विवश है।
गुब्बारों से भरे हाथ हैं,
फटे पटों से ढका बदन,
रंग भरता दूसरों के मन में,
बेरंग सा है जीवन।
रंग-बिरंगे गुब्बारों से,
खेलने को लालायित मन,
दो जून रोटी के लिए मगर,
वह भूल रहा अपना बचपन।
फुटपाथ पर खड़ा,बेचता,
रंग-बिरंगे गुब्बारे,
इन गुब्बारों में बिखरे हैं,
आखों के सपने सारे।
शायद आँखें सोच रही हैं,
खाने को कुछ मिल पाता,
तीन चार भी बिक जाते,
तो घर पर चूल्हा जल जाता।
धागों में उलझी उँगलियाँ,
फुटपाथ पर उलझा जीवन,
बोलो क्या यह बाल श्रमिक है-
पेट पालता बेबस बचपन??
भूखे पेट, मचलते मन से,
आसमान में ताक रहा है,
बिकते बचपन का अंधियारा,
नंगे तन से झाँक रहा है।
सुनसान सब पड़े रास्ते,
जाड़ा हाड़ कँपाने वाला,
छिपती धूप, शरद का मौसम,
हाथ-पाँव पिघलाने वाला।
ठिठुरा, किकुड़ा देह काँपता,
आयु कुल सात आठ बरस है,
पढ़ने जाने का सपना है,
किन्तु वह क्या करे, विवश है।
गुब्बारों से भरे हाथ हैं,
फटे पटों से ढका बदन,
रंग भरता दूसरों के मन में,
बेरंग सा है जीवन।
रंग-बिरंगे गुब्बारों से,
खेलने को लालायित मन,
दो जून रोटी के लिए मगर,
वह भूल रहा अपना बचपन।
फुटपाथ पर खड़ा,बेचता,
रंग-बिरंगे गुब्बारे,
इन गुब्बारों में बिखरे हैं,
आखों के सपने सारे।
शायद आँखें सोच रही हैं,
खाने को कुछ मिल पाता,
तीन चार भी बिक जाते,
तो घर पर चूल्हा जल जाता।
धागों में उलझी उँगलियाँ,
फुटपाथ पर उलझा जीवन,
बोलो क्या यह बाल श्रमिक है-
पेट पालता बेबस बचपन??
No comments:
Post a Comment