Thursday, March 17, 2011

मानवता

सुबह उठते ही अखबार की राह देखना हमारी रोज़ की दिनचर्या में शामिल है। कोशिश होती है कि दिन की शुरुआत अच्छे तरीके से की जाए। लेकिन अखबार में भरी पड़ी लूट, हत्या, भ्रष्टाचार की खबरें हमारे ताज़ातरीन मन के कैनवास पर जंग लगा देती है। समाज में बढ़ रही अमानवीयता शायद इसका प्रमुख कारण है। आज हमारे लिये मानवीय संवेदनाओं से बढ़कर हमारी तृष्णा, हमारा स्वार्थ है। हम समाज में अपने स्टेटस को बनाने के लिये मानवता को तार तार करने से भी नहीं चूकते। हमारी इस दिखावे की भूख को चित्रित कर रही है ये कविता-

आग की लपटें उठीं,
नभ में कालिमा छाई,
लिपट-लिपट लपटों से झुलसी,
विवश प्रकृति भी घबराई।
सिहर उठा सीना भूधर का,
अम्बर में चीत्कार उठी,
वेगवती की तपती लहरें,
त्राहि-त्राहि पुकार उठीं।
यह जंगल की आग नहीं है,
तृष्णा की यह ज्वाला है,
मनुज मत्र के मन पर आज,
पाप ने डेरा डाला है।
कलियुग का मानव अब,
बन बैठा है मानव से दानव,
रक्त की नदियाँ बहा रहा है,
भू पर नित-नित नव-नव।
मानवता का गला घोंटता,
भाग्य बाँधने को अपना,
कितना भी गिर सकता है वह,
स्वार्थ साधने को अपना।
भाई भाई का, पुत्र पिता का,
आज बने सब दुश्मन हैं,
छल है, ढोंग, कपट-ईर्ष्या है,
यहाँ नही अपनापन है।
उगल रहा विष मुख से,
कटुता के बन्धन में बँधा है,
अनभिज्ञ अपने भविष्य से,
आज हुआ नर अँधा है।
धन की सत्ता के लालच ने,
किसे नहीं है फाँस लिया,
घृणा फूट तो दी मन में, पर
क्या कोई सुख तुम्हें दिया?
देख दृश्य यह अनहोनी का,
परमपिता भी विस्मित हैं,
खुद अपनी मृत्युशय्या को,
सजा रहा मानव नित है।

No comments:

Post a Comment