कहने को अन्धविश्वास और रुढ़िवादिता को पीछे छोड़कर हमारा भारत तथाकथित पढ़े-लिखे और युवा सोच वाली आबादी का देश बनता जा रहा है। पर ज़रा इस खोखली सच्चाई के भीतर झाँक कर देख लेते हैं। मुखौटे के भीतर वाला ये चेहरा आंधकारमय है। यहाँ प्रगति के हर दावे में सुराख है। हम अब भी कहीं न कहीं उन अंधविश्वासों से प्रेरित हैं। आज भी प्रतिदिन हमारे देश के किसी कोने से गर्भ में ही मारी जा रही किसी बेटी की चीख निकलती है, लेकिन आधुनिकता का शोर उसे दबा देता है। ज़रा पढ़िए, और सोचिये -क्या ये हमारे आसपास की ही कहानी है??
डाक्टरों ने पेट से,
गोल चीज़ इक छुआई,
कोख की बच्ची सहम कर,
एक कोने जा समाई,
पिता ने थी साँस थामी,
जाँच के इंतज़ार में,
काश बेटा ही जनम ले,
हमारे परिवार में,
वंश तभी चल सकेगा,
होंगे पूरे स्वप्न सब,
बढ़ेगी प्रतिष्ठा हमारी,
यश हमें मिलेगा तब,
जाँच खत्म हुई, डाक्टर
ने बुरा सा मुँह बनाया,
बड़े दुख के साथ, माता
और पिता को ये बताया-
"शोक!है बेटी हुई,
पूर्व जनम का पाप ये,
स्वप्न न होएँगे पूरे,
जीवन भर अभिशाप ये,"
"बिखर जायेंगे सपने सारे,
क्या होगा घर का हमारे,"
सोच-सोच माँ घबराई,
आँखे उसकी पथराईं,
होश खो चली वो घबरा कर,
गिर पड़ी पछाड़ खाकर,
बाप भी था शोकमग्न,
"हा!लेगी बेटी जनम,
बेटे की आशा में माहों तक
जिसे कोख में पाला था,
वह तो घर की अपशकुन निकली,
शायद नसीब ही काला था,
"बिटिया को अभिशाप समझते,
पिता और माता,
सोचते किसी पाप का फल
दे रहा विधाता,
लालसाओं की आग में झुलसकर,
माता और पिता ने ही उसे ठुकरा दिया,
आँखें भी न खुलीं थी जिसकी,
उसको सदा के लिये सुला दिया,
धिक्कर है हमारी सोच पर,
परम्पराओं के दलदल में हैं फसे पड़े,
विकास के युग में,
रुढ़िवादिता को हैं जकड़े।
डाक्टरों ने पेट से,
गोल चीज़ इक छुआई,
कोख की बच्ची सहम कर,
एक कोने जा समाई,
पिता ने थी साँस थामी,
जाँच के इंतज़ार में,
काश बेटा ही जनम ले,
हमारे परिवार में,
वंश तभी चल सकेगा,
होंगे पूरे स्वप्न सब,
बढ़ेगी प्रतिष्ठा हमारी,
यश हमें मिलेगा तब,
जाँच खत्म हुई, डाक्टर
ने बुरा सा मुँह बनाया,
बड़े दुख के साथ, माता
और पिता को ये बताया-
"शोक!है बेटी हुई,
पूर्व जनम का पाप ये,
स्वप्न न होएँगे पूरे,
जीवन भर अभिशाप ये,"
"बिखर जायेंगे सपने सारे,
क्या होगा घर का हमारे,"
सोच-सोच माँ घबराई,
आँखे उसकी पथराईं,
होश खो चली वो घबरा कर,
गिर पड़ी पछाड़ खाकर,
बाप भी था शोकमग्न,
"हा!लेगी बेटी जनम,
बेटे की आशा में माहों तक
जिसे कोख में पाला था,
वह तो घर की अपशकुन निकली,
शायद नसीब ही काला था,
"बिटिया को अभिशाप समझते,
पिता और माता,
सोचते किसी पाप का फल
दे रहा विधाता,
लालसाओं की आग में झुलसकर,
माता और पिता ने ही उसे ठुकरा दिया,
आँखें भी न खुलीं थी जिसकी,
उसको सदा के लिये सुला दिया,
धिक्कर है हमारी सोच पर,
परम्पराओं के दलदल में हैं फसे पड़े,
विकास के युग में,
रुढ़िवादिता को हैं जकड़े।
No comments:
Post a Comment