Wednesday, March 23, 2011

भ्रूण हत्या

कहने को अन्धविश्वास और रुढ़िवादिता को पीछे छोड़कर हमारा भारत तथाकथित पढ़े-लिखे और युवा सोच वाली आबादी का देश बनता जा रहा है। पर ज़रा इस खोखली सच्चाई के भीतर झाँक कर देख लेते हैं। मुखौटे के भीतर वाला ये चेहरा आंधकारमय है। यहाँ प्रगति के हर दावे में सुराख है। हम अब भी कहीं न कहीं उन अंधविश्वासों से प्रेरित हैं। आज भी प्रतिदिन हमारे देश के किसी कोने से गर्भ में ही मारी जा रही किसी बेटी की चीख निकलती है, लेकिन आधुनिकता का शोर उसे दबा देता है। ज़रा पढ़िए, और सोचिये -क्या ये हमारे आसपास की ही कहानी है??


डाक्टरों ने पेट से,
गोल चीज़ इक छुआई,
कोख की बच्ची सहम कर,
एक कोने जा समाई,
पिता ने थी साँस थामी,
जाँच के इंतज़ार में,
काश बेटा ही जनम ले,
हमारे परिवार में,
वंश तभी चल सकेगा,
होंगे पूरे स्वप्न सब,
बढ़ेगी प्रतिष्ठा हमारी,
यश हमें मिलेगा तब,
जाँच खत्म हुई, डाक्टर
ने बुरा सा मुँह बनाया,
बड़े दुख के साथ, माता
और पिता को ये बताया-
"शोक!है बेटी हुई,
पूर्व जनम का पाप ये,
स्वप्न न होएँगे पूरे,
जीवन भर अभिशाप ये,"
"बिखर जायेंगे सपने सारे,
क्या होगा घर का हमारे,"
सोच-सोच माँ घबराई,
आँखे उसकी पथराईं,
होश खो चली वो घबरा कर,
गिर पड़ी पछाड़ खाकर,
बाप भी था शोकमग्न,
"हा!लेगी बेटी जनम,
बेटे की आशा में माहों तक
जिसे कोख में पाला था,
वह तो घर की अपशकुन निकली,
शायद नसीब ही काला था,
"बिटिया को अभिशाप समझते,
पिता और माता,
सोचते किसी पाप का फल
दे रहा विधाता,
लालसाओं की आग में झुलसकर,
माता और पिता ने ही उसे ठुकरा दिया,
आँखें भी न खुलीं थी जिसकी,
उसको सदा के लिये सुला दिया,
धिक्कर है हमारी सोच पर,
परम्पराओं के दलदल में हैं फसे पड़े,
विकास के युग में,
रुढ़िवादिता को हैं जकड़े।

Tuesday, March 22, 2011

मेरा गौरव-मेरा बिहार

आज बिहार की स्थापना को निन्यानवे वर्ष हुए हैं। ये निन्यानवे वर्ष जहाँ बिहार के गौरवशाली अतीत का प्रतीक हैं, वहीं ये राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर बिहार के संघर्ष के भी सूचक हैं। आज बिहार की छवि अपने अस्तित्व की भीख माँगते राज्य के रूप में नहीं है, बिहार अब अपने पैरों पर खड़ा होकर अपने अधिकार की बात करता है। ये न सिर्फ़ हम बिहारियों का परिश्रम है, बल्कि कुशल नेतृत्व का भी परिणाम है। पर हमारा सफर यहाँ थमने वाला नहीं है, हमें तो सफलता का आसमान छूना है। सलाम है बिहारियों के बुलंद हौसलों और बिहार के सौंवे वर्ष में आगमन को-
ललाट के जिसके श्रृंगार कर रहा हरित पटल,
पाँव है पखारता सदा पवित्र गंग जल,
दिव्य देवभूमि पूजनीय मातु प्रियतरा,
यही है बिहार की पतित पावनी धरा,
स्वर्णिम इतिहास कर रहा सहर्ष गान है,
आदिकाल से यही भारत की शान है,
चंद्रगुप्त और अशोक पूत थे बिहार के,
यहीं पड़े पाँव अजातशत्रु, बिम्बिसार के,
बुद्धदेव का हुआ इसी धरा पर अवतरण,
यहीं बौद्ध-जैन-सिख धर्मों का सृजन,
राजगीर, बोधगया में बसती बिहार की धड़कन,
नालंदा के खंडहर कर रहे अतीत का स्तवन,
चमके, बन उठे ये सकल विश्व का अलंकार,
जग में जय हो मेरा गौरव-मेरा बिहार॥ 

Sunday, March 20, 2011

होली की शुभकामनाएँ

Art by: Sristi
खूब जमेगा रंग,
आप सभी के संग,
होली की हुड़दंग,
जीवन में लाए उमंग।

Thursday, March 17, 2011

मानवता

सुबह उठते ही अखबार की राह देखना हमारी रोज़ की दिनचर्या में शामिल है। कोशिश होती है कि दिन की शुरुआत अच्छे तरीके से की जाए। लेकिन अखबार में भरी पड़ी लूट, हत्या, भ्रष्टाचार की खबरें हमारे ताज़ातरीन मन के कैनवास पर जंग लगा देती है। समाज में बढ़ रही अमानवीयता शायद इसका प्रमुख कारण है। आज हमारे लिये मानवीय संवेदनाओं से बढ़कर हमारी तृष्णा, हमारा स्वार्थ है। हम समाज में अपने स्टेटस को बनाने के लिये मानवता को तार तार करने से भी नहीं चूकते। हमारी इस दिखावे की भूख को चित्रित कर रही है ये कविता-

आग की लपटें उठीं,
नभ में कालिमा छाई,
लिपट-लिपट लपटों से झुलसी,
विवश प्रकृति भी घबराई।
सिहर उठा सीना भूधर का,
अम्बर में चीत्कार उठी,
वेगवती की तपती लहरें,
त्राहि-त्राहि पुकार उठीं।
यह जंगल की आग नहीं है,
तृष्णा की यह ज्वाला है,
मनुज मत्र के मन पर आज,
पाप ने डेरा डाला है।
कलियुग का मानव अब,
बन बैठा है मानव से दानव,
रक्त की नदियाँ बहा रहा है,
भू पर नित-नित नव-नव।
मानवता का गला घोंटता,
भाग्य बाँधने को अपना,
कितना भी गिर सकता है वह,
स्वार्थ साधने को अपना।
भाई भाई का, पुत्र पिता का,
आज बने सब दुश्मन हैं,
छल है, ढोंग, कपट-ईर्ष्या है,
यहाँ नही अपनापन है।
उगल रहा विष मुख से,
कटुता के बन्धन में बँधा है,
अनभिज्ञ अपने भविष्य से,
आज हुआ नर अँधा है।
धन की सत्ता के लालच ने,
किसे नहीं है फाँस लिया,
घृणा फूट तो दी मन में, पर
क्या कोई सुख तुम्हें दिया?
देख दृश्य यह अनहोनी का,
परमपिता भी विस्मित हैं,
खुद अपनी मृत्युशय्या को,
सजा रहा मानव नित है।

Sunday, March 13, 2011

जापान की मदद करें

जापान इस वक्त आपदा से गुज़र रहा है। 8.9 तीव्रता के भूकम्प के बाद आई सुनामी से वहाँ भीषण तबाही हो चुकी है। टेलिविज़न और इंटरनेट पर नज़र आ रहे तबाही के दृश्य दिल को दहला दे रहे हैं। घर, वाहन, इमारतें, बंदरगाह, जहाज़,  प्रलय की धारा सब कुछ बहा ले जा रही हैं। इस वक्त, जब आप ये पोस्ट पढ़ रहे होंगे, तब कितने ही आपदा पीड़ित मलबों में से निकाले जाने क इंतज़ार कर रहे होंगे।
Courtesy: kerala365.com
                                  भले ही हम आज विज्ञान की चरम सीमा पर खड़े हो आसमान छू रहे हैं, परन्तु प्रकृति के कोप के सामने हम बौने हो जाते हैं। हमारी तरक्की प्राकृतिक आपदाओं और उनसे होने वाले विनाश के सामने संघर्ष करने लगती है। जापान में आई इस सुनामी के बाद भी मेहनतकश जापानी पुनर्निर्माण तो कर ही लेंगे;पर अभी हम जो कर सकते हैं, वो है प्रार्थना, दुआएँ और जापानियों की सहायता।

Thursday, March 10, 2011

माँ

माँ……हमे अपने पैरों पर खड़ा करने वाली, बोलना सिखाने वाली,हमेशा हमारा साथ देने वाली माँ, जिसके आँचल में बैठकर हमने अपना बचपन बिताया है,जिसकी ममता ने हर कदम पर हमें सही राह दिखायी है। माँ चाहे आपकी हों या मेरी,ममता और स्नेह का दैवीय स्वरूप-यही तो माँ है…

बालमन की भावनाओं,
के लिए आवाज हो तुम,
प्रेरणा हो, पथ प्रदर्शक,
माँ, हमारी नाज हो तुम,
तुम सखा, तुम ही गुरू हो,
अथक ऊर्जा स्रोत हो तुम,
बड़ी ममतामयी, स्नेही,
अंतरात्मा-ज्योत हो तुम,
जब कभी भयभीत होते,
साथ अपने तुम्हे पाया,
जब कभी भटके, तुम्हीं ने
सत्य पथ हमको दिखाया,
हर कदम पर साथ तुमने
 दिया हर पल, हर समय,
तुम हजारों साल जीयो,
जन्मदिन हो मंगलमय॥

वसन्तोत्सव

Art by: Sristi
लो, आखिर आ ही गया वसन्त का मौसम। आम के पेड़ों के मंजर से लद जाने का मौसम……मधुर फाग गीतों का मौसम……कोयल की कूक का मौसम……हरियाली का मौसम……उत्सव का मौसम……पर हमारे देश के शहर तो इतना आगे जा चुके हैं कि वसन्त की मस्ती का रंग तो धूमिल हो चुका है। हाँ,हमारे गावों में जरूर वसन्त अब भी साँसे गिन रहा है।वसन्त का उत्सव तो अब हमारी यादों तक सीमित है। क्या ऐसा ही नहीं है, आपकी भी यादों का वसन्त-

उन्मत्त हुआ मन,
डोल गया तन-बदन,
बीत गया माघ,
हुआ वसन्त का आगमन।
                        नशे में उतावली,
                        हुए जाती प्रकृति,
                        आनन्दित कर देती,
                        फूलों की स्मिति।
झूम रही डाल-डाल,
वृक्षों में भरा यौवन,
बीत गया माघ,
हुआ वसन्त का आगमन।
                       गूँज रही चहुँओर,
                       स्वर लहरी फाग की,
                       गीत गा रही कोयल,
                       स्वागत के राग की।
पेड़ों की शाखा पर
 झूले हैं लटके,                                                                                                            
मस्ती में चूर हो,
वायु दे झटके।
                       पुष्पों की सुरभि से,
                       महक उठा उपवन,
                       बीत गया माघ,
                       हुआ वसन्त का आगमन॥

बेबस बचपन

हम सब ने फुटपाथ पर खड़े होकर अपना पेट पलते बच्चे जरूर देखे होंगे। क्या वे पढ़-लिखकर बड़ा आदमी नही बनना चाहते? क्या वे खेलना नहीं चाहते, अपने बचपन को सेलिब्रेट नहीं करना चाहते?

भूखे पेट, मचलते मन से,
आसमान में ताक रहा है,
बिकते बचपन का अंधियारा,
नंगे तन से झाँक रहा है।

सुनसान सब पड़े रास्ते,
जाड़ा हाड़ कँपाने वाला,
छिपती धूप, शरद का मौसम,
हाथ-पाँव पिघलाने वाला।

ठिठुरा, किकुड़ा देह काँपता,
आयु कुल सात आठ बरस है,
पढ़ने जाने का सपना है,
किन्तु वह क्या करे, विवश है।

गुब्बारों से भरे हाथ हैं,
फटे पटों से ढका बदन,
रंग भरता दूसरों के मन में,
बेरंग सा है जीवन।

रंग-बिरंगे गुब्बारों से,
खेलने को लालायित मन,
दो जून रोटी के लिए मगर,
वह भूल रहा अपना बचपन।

फुटपाथ पर खड़ा,बेचता,
रंग-बिरंगे गुब्बारे,
इन गुब्बारों में बिखरे हैं,
आखों के सपने सारे।

शायद आँखें सोच रही हैं,
खाने को कुछ मिल पाता,
तीन चार भी बिक जाते,
तो घर पर चूल्हा जल जाता।

धागों में उलझी उँगलियाँ,
फुटपाथ पर उलझा जीवन,
बोलो क्या यह बाल श्रमिक है-
पेट पालता बेबस बचपन??

Wednesday, March 09, 2011

वंदिता

कल विश्व महिला दिवस था- महिलाओं को समर्पित एक दिन……… हर साल महिला दिवस के दिन यह ख्याल आता है कि आधी आबादी के लिये सिर्फ़ एक दिन ही क्यों? महिलायें बराबरी की हकदार हैं, सम्मान की हकदार हैं;सिर्फ़ एक दिन नहीं,पूरा साल उनकी आजादी और उन्मुक्ति का है। उनके त्याग को समर्पित है यह कविता-

नारी ऊर्जा है,शक्ति है,
नारी मन की अभिव्यक्ति है,
नारी समाज की दृष्टि है,
आनन्द स्रोत है, सृष्टि हैं,
नारी है सुख का मूर्त रूप,
है विश्वविधाता का स्वरूप,
लक्ष्मी के रूप में पूजित है,
फिर भी नारी अति शोषित हैं,
नारी ही जग का आदि सृजन,
उससे ही सम्भव है जीवन,
नारी है सभ्यता का विस्तार,
नारी है वसुधा का श्रृंगार,
नारी बल है, नारी विश्वास,
नारी मन मंदिर का प्रकाश,
नारी खुशियों की फुलवारी,
हा!फिर क्यों अबला है नारी?
शोणित से स्वर्ण बनाती है,
वह घर को स्वर्ग बनाती है,
प्रताड़ना की धधकती ज्वाला में,
वह ही क्यों झुलसी जाती है??

शारदा स्तुति

मित्रों,हर शुभ काम का प्रारंभ ईश वन्दन से करना हमारी भारतीय परम्परा की देन है। मैं भी अपने ब्लाग की शुरुआत माँ सरस्वती की स्तुति से कर रही हूँ।

मन मंदिर में ज्ञान ज्योत्स्ना भर दो,
कर रही हूँ वन्दना, मुझको वर दो,
खोलो बन्द कपाट माँ मेरे मन का,
नित नित हो नव सृजन सृष्टि सृजन का,
दुर्विवेक का अन्धकार हरो माँ,
वाणी में, शब्दों में वास करो माँ,
आगे बढ़ निज जीवन सफल बनाऊँ,
प्रतिक्षण माँ मैं साथ तुम्हारा पाऊँ॥