Monday, April 22, 2013

स्वातंत्र्य की पुकार

हमारे देश को स्वतंत्र हुए छ्ह दशक से भी अधिक का वक्त बीत चुका है. इस स्वतंत्रता को पाने के लिये लाखों देशभक्त शहीद हुए, पर क्या हम इन शहीदों की शहादत का मान रखने में सफल हुए हैं ? क्या वास्तव में आज हम स्वतंत्र हैं ? निस्संदेह अब हम अंग्रेजों के गुलाम तो नहीं रहे, लेकिन हम विभिन्न समस्याओं के गुलाम हैं. हम अपने खुद के गुलाम बन बैठे हैं. इसी विषय पर मेरी यह कविता है


सत्याग्रह द्वारा संघर्षों की संभूति भारत भू,
आजादी के मतवालों की है प्राणाहूति भारत भू,
लाखों बलिदानों की साक्षी है महाविभूति भारत भू,
      यह गाँधी का सर्वोदय है,
      यह भगत सिंह की जय जय है,
जलियाँवाला, गुजराँवाला, चौरी‌‌‌‌‌ चौरा या चम्पारण,
वीरों के खूँ से सिंचा हुआ भारत की मिट्टी का कण कण,
यह त्याग चंद्रशेखर का है, यह लोकमान्य तिलक का प्रण,
      इसकी आजादी है अमूल्य,
      है हम सब का भारत अतुल्य,
पर सदियों के संघर्षों का हमने वजूद ही मिटा दिया,
ऐसी अमूल्य आजादी को क्षण भर में हमने लुटा दिया,
सर्वोदय को इतिहास के कुछ पन्नों के भीतर अटा दिया,
      दे आमंत्रण बर्बादी को,
      बेचा अमूल्य आजादी को,
है आज पुनः भारत भूमि को घेर रही रजनी काली,
स्वातंत्र्य बँध गया बँधन में हो रही गुलामी मतवाली,
फिर मिट्टी हमें पुकार रही है माँग रही लहू वकी लाली,
      इतिहास रहा पुनरावृति कर,
      होने वाला फिर महासमर,
पर ब्रिटिश नही इस बार विजय पानी है हमें अपने ऊपर,
संघर्ष हमारा उससे है, जो पनप रहा सबके भीतर,
जो हमें बाँटता जाति, धर्म, मजहब जैसे आधारों पर,
      संघर्ष हमारा उनसे है,
      एकता को खतरा जिनसे है,
संघर्ष हमारा जातिवाद का धंधा करने वालों से,
भारत को निज संपत्ति समझकर सौदा करने वालों से,
मजहब की आड़ में जनमानस को अँधा करने वालों से,
      संस्कृति के ठेकेदारों से,
      भारत माँ के हत्यारों से,
विविधताओं को बँटवारे की नींव बनाने वालों से,
पूर्वाँचल, तेलंगाना की माँग उठाने वालों से,
काश्मीर को भारत भू से पृथक बताने वालों से,
      जिनको बँटवारा प्यारा है,
      उनसे संघर्ष हमारा है,
क्षेत्रवाद का खेल खेलकर भारत भू बाजार बन गई,
उत्तर पूरब दक्षिण पश्चिम चारों तरफ दीवार बन गई,
भूमिपुत्र की थ्योरी जिस दिन हिंसा का हथियार बन गई,
      बापू की आत्मा तब रोई,
      आजादी दूर कहीं खोई,


भगत सिंह के लहू का कतरा हमको रहा पुकार है,
पर अंग्रेजों से नहीं हमें खुद से लड़ना इस बार है,
शत्रु है हमारा दुराचरण और शत्रु भ्रष्टाचार है,
      हम सब में जाग उठा रावण,
      नैतिकता का हो रहा पतन,
घपले घोटाले सुनना तो दिनचर्या का अनिवार्य भाग है,
बने देश के कर्णधार वो, जिनके दामन में स्वयं दाग है,
भारत भू की भक्ति नहीं इन भ्रष्टों का तो अलग राग है,
      जनता की छाती पर चढ़कर,
      खाना है पैसा पेट भर कर,
देखो भारत के भव्य इमारत की बुनियाद अधूरी है,
यह देश जहाँ कमीशनखोरी रिश्वत बहुत जरूरी है,
पर रोज कृषक का भूखे मरना महज एक मजबूरी है,
      पैसों की भूख बढ़ी इतनी,
      कि मानवता है बोझ बनी,
धिक्कार हमें जो रिश्वतखोरी को कर्त्तव्य बनाते हैं,
धिक्कार हमें जो किसी भ्रष्ट को वोट डालकर आते हैं,
सरकारों पर कानून व्यवस्था पर हम प्रश्न उठाते हैं,
      उँगली उठाएँ हम खुद पर,
      झाँकें पहले अपने भीतर,
हम गाँव गाँव तक लैपटौप टैबलेट पहुँचाने वाले हैं,
हम विश्व पटल पर इंडिया का परचम लहराने वाले हैं,
पर भूखे भारत में दो वक्त की रोटी के भी लाले हैं,
      पैबंदों से झाँकते बदन,
      को पी.सी. नहीं, चाहिए वसन,
आओ हम दें अंजाम आज आमूलचूल परिवर्तन को,
मार गिराएँ भीतर बैठे भ्रष्टाचार के रावण को,
पुनः जागृत कर दें मिलकर लोकमान्य तिलक के प्रण को,
      इस मिट्टी में मेंनव प्राण भरें,
      भारत का नव निर्माण करें,


सरोजिनी नायडू का स्वर हमको रहा पुकार हैं,
कि भ्रष्टाचार ही नहीं हमारे कई हजार हैं,
शत्रु देवी समपूज्य नारी पर बढ़ता अत्याचार है,
      इंसान बना बना हैवान है,
      सबमें बैठा शैतान है,
प्रतिदिन नारी देवी दुर्गा का रूप बताई जाती है,
आवरण हटा कर देखो, वह तो रोज सताई जाती है,
हर रोज कोई दामिनी, कामिनी, निर्भया बनाई जाती है,
      प्रतिदिन करता है दुर्योधन,
      भारत माता का चीरहरण,
संघर्ष हमारा उनसे जो करते नारी का सम्मान नहीं,
नारी तन भी है, मन भी है, संपत्ति या सामान नहीं,
कपड़ों में लिपटी देह नहीं, वह गुड़िया इक बेजान नहीं,
      वह पायल की झनकार नहीं,
      मनोरंजन का औजार नहीं,
नारे देने, मोमबत्ती जलाने से परिवर्तन क्या होगा,
क्या होगा आंदोलन से, क्या देने से धरना होगा,
परिवर्तन तो आचार विचारों में खुद ही करना होगा,
      दुर्योधन न हावी हमपर,
      हम युद्ध छेड़ दें खुद पर,


हमही युद्ध, हम्हीं योद्धा हैं, हम्हीं युद्ध का कारण हैं,
हम सब के ही बीच में छिपा किंतु कहीं निवारण है,
हमसे ही संभव भारत की स्वतंत्रता का विस्तारण है,
आओ तस्वीर बदल दें हम,
      मिलकर खुद से लोहा लें हम,
भारत न दुबारा सोने की चिड़िया कहलाए नहीं सही,
हम चाँद पर पहुँचकर वहाँ बस्ती न बसाएँ नहीं सही,
लेकिन नंगा भूखा भारत भूमि पर हो न कोई कहीं,
      भारत का फिर सर्वोदय हो,
      हर दिन नवीन सूर्योदय हो,
जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा की संकीर्ण सोच भुला दें हम,
तोड़ गुलामी की जंजीरें फिर स्वतंत्रता ला दें हम,
भारत माता की खोई प्रतिष्ठा उनको पुनः दिला दें हम,
      यह नई प्रतिष्ठा अक्षय हो,
      हम खुद हमसे ही निर्भय हों,
हम हर शहीद के प्राणों की आहूति का सम्मान करें,
हम गाँधी के सर्वोदय की संभूति का सम्मान करें,
भारत भूमि की विविधताओं को नित नव रूप प्रदान करें,
      हर कोना रामराज्यमय हो,
      भारत भू की ही सदा जय हो ........

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