इक
दिन नभ में विचरण करते
सूरज
ने हुँकार भरी-
"बोलो, मुझसा तेजस्वी कौन?"
तीनों
ही लोक रह गए मौन।
तब
भूधर ने ऊपर देखा,
उसकी
भी वाणी गूँज उठी,
"मैं
हूँ भगीरथी का उद्गम,
मैं
भूमि और नभ का संगम,
मै
हूँ प्रतीक
तरुणाई का,
मैं हूँ रक्षक, मैं हूँ शरण्य,
मैं वसुधा का करता श्रृंगार,
पशु-पक्षी करते मुझपर विहार,
मुझसा रक्षक है और कौन?"
तीनों ही लोक रह गए मौन।
बोली तरंगिणी,"देख मुझे,
कितनी निर्मल, कितनी निश्छल,
मैं हूँ सभ्यता का आधार,
मै हूँ अथाह, मैं हूँ अपार,
गहराइयों मेँ झाँक मेरी,
मुझमें अपना प्रतिबिम्ब देख,
सच्चा स्वरूप दिखलाती हूँ,
सच पर जीना सिखलाती हूँ,
मुझसा निश्छल, निष्कपट कौन?"
तीनों ही लोक रह गए मौन।
तब गूँज उठा स्वर तरुवर का,
"मेरा धन है निःस्वार्थ त्याग,
मैं सदा सभी को देता हूँ,
बदले में कुछ न लेता हूँ,
फल-फूल मेरे, मेरी छाया,
मैंने इनका सुख कब पाया,
बोलो, मुझसा निःस्वार्थ कौन?"
तीनों ही लोक रह गए मौन।
फिर चंद्र देख नीचे, बोला,
"क्या है कोई मुझसे शीतल?"
दे सके चंद्र को प्रत्युत्तर,
वो शीतलता किसके भीतर!
भू पर दीपक के तले बैठ
इक प्रणयी पतंगा बोल उठा,
प्रीति ही है मेरा जीवन,
मेरे जीवन का ध्येय मिलन,
मैं यही चाहता हूँ-हो जाऊँ
दीपक की लौ में विलीन,
जल-जल अग्नि में मरता हूँ,
पर दूर नहीं हट सकता हूँ,
मुझसा अनुरागी और कौन?"
तीनों ही लोक रह गए मौन।
हँसकर तब परमेश्वर बोले,
"माता है तुम सब से महान,
भू पर मेरा साक्षात रूप,
तेजस्विनी वह देदिप्यमान,
माता में शक्ति सृजन की है,
वह स्रोत नए जीवन की है,
माता है सबसे सहनशील,
माता है सबसे धैर्यवान,
नौ मास बोझ वहन करती,
हर पीड़ा, कष्ट सहन करती।
वह पुत्र-रक्षा हेतु अपने
प्राणों क दाँव लगाती है,
वह कोटि सूर्य से बढ़ कर है,
हाँ, स्वर्ग से भी वह ऊपर है,
उसका हिय सागर से अथाह,
उसका ममत्व नभ से अपार,
वह सुत को सत्य सिखाती है,
सत्पथ ही सदा दिखाती है।
वह है निश्छल, वह है निर्मल,
मन कोटि चन्द्र से भी शीतल,
निष्काम प्रेम उसका तप है,
निःस्वार्थ त्याग की मूरत है,
हर क्षण-क्षण, हर सुख न्योछावर,
करती है माँ अपने सुत पर,
क्या तटिनी, चंद्रमा, क्या दिनकर,
क्या पेड़, पतंगा, क्या भूधर,
माँ के समक्ष हैं सभी तुच्छ,
माँ के चरणों की धूलि भर॥"
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