Sunday, November 04, 2012

अँधेरा छँटने दो


मेरी यह कविता हमारे भीतर व्याप्त नाउम्मीदी के, बुराईयों के अँधेरे के बार में है ; जिसने हमारे मन में घर कर लिया है . मेरी यह कविता उस अँधेरे को दूर करने का एक छोटा सा प्रयास है .
जाग उठे जीवन जगती पर,
विभा विभा अब सो जाओ,
युगों युगों का घोर अँधेरा,
छँटने दो, अब तो जाओ .
नव प्रभात का नवागमन हो,
उगने दो सूरज अंबर में,
बरसे अगणित रश्मि राशियाँ,
उजियारा फैले घर घर में .
मुरझाई कलिकाओं को,
नव प्राण मिले, हर फूल खिले,
खग विहंग पर खोलें,
उनको पुनः मुक्त आकाश मिले .
त्राहि त्राहि कर रहे गगन में,
आँचल न अपना फैलाओ,
जाग उठे जीवन जगती पर,
विभा विभा अब सो जाओ .
अहो कालिमा काल बनी है,
तम में डूबी दसों दिशाएँ,
भटक रहा मनुपुत्र राह में,
दिखता नहीं किधर जाएँ .
दो प्रकाश, दो दृष्टि धरा को,
मिटे घनान्धकार कण कण का,
हर्षित हो हर एक हिय,
ज्योतिर्मय हो पथ जीवन का .
जो भूले भटके मदांध जन,
अयि रजनी, उनको रोशन कर,
अंतर्मन के नेत्र खोल वे,
झाँक सकें खुद के भीतर .
रिक्त हो चुके हृदय कोष में,
उम्मीदों का संचय हो,
अंधकार से निर्भय हो,
मानवता का सर्वोदय हो .
नवजीवन दो नई उमंगें,
नई सुबह में खो जाओ,
जाग उठे जीवन जगती पर,
विभा विभा अब सो जाओ ..

Tuesday, September 11, 2012

बनो प्रेरणा



जीवन में सफल होने के लिए जरूरी है कि हम अपने नैतिक और पारिवारिक मूल्यों का पतन न होने दें. मेरी यह कविता उन छात्रों को समर्पित है जो अपने भविष्य को आकार दे रहे हैं.
कुल कीर्ति ज्वाल बन दमक दमक,
दुनिया को दीपित कर देना,
आशाओं के तुम दीप जला,
खुशियों से आँचल भर देना.
हाँ, मात पिता की अपेक्षाओं के
तुम प्रसून खिलने देना,
परिवार भवन है तुम स्तंभ,
न नींव जरा हिलने देना,
तुम सफलताओं के उच्च शिखर की,
नित नव परिभाषा गढना,
प्रेरणा अपनी बन स्वयं, लक्ष्य को
बढना तो ऐसे बढना तो ऐसे बढना
कि डरे विपत्ति आने से,
तम भी झिझके छा जाने से,
जय विजय गले का हार बने,
दृढता मन का श्रृंगार बने,
जड को भू से जोडे रखना,
तुम हर पीडा को हर लेना,
कुल कीर्ति ज्वाल बन दमक दमक,
दुनिया को दीपित कर देना.

Thursday, May 17, 2012

माँ के समक्ष सब तुच्छ

इक दिन नभ में विचरण करते
सूरज ने हुँकार भरी-
"बोलो, मुझसा तेजस्वी कौन?"
तीनों ही लोक रह गए मौन।
    तब भूधर ने ऊपर देखा,
    उसकी भी वाणी गूँज उठी,
    "मैं हूँ भगीरथी का उद्गम,
    मैं भूमि और नभ का संगम,
    मै हूँ  प्रतीक तरुणाई का,
    मैं हूँ रक्षक, मैं हूँ शरण्य,
    मैं वसुधा का करता श्रृंगार,
    पशु-पक्षी करते मुझपर विहार,
    मुझसा रक्षक है और कौन?"
    तीनों ही लोक रह गए मौन।
बोली तरंगिणी,"देख मुझे,
कितनी निर्मल, कितनी निश्छल,
मैं हूँ सभ्यता का आधार,
मै हूँ अथाह, मैं हूँ अपार,
गहराइयों मेँ झाँक मेरी,
मुझमें अपना प्रतिबिम्ब देख,
सच्चा स्वरूप दिखलाती हूँ,
सच पर जीना सिखलाती हूँ,
मुझसा निश्छल, निष्कपट कौन?"
तीनों ही लोक रह गए मौन।
    तब गूँज उठा स्वर तरुवर का,
    "मेरा धन है निःस्वार्थ त्याग,
    मैं सदा सभी को देता हूँ,
    बदले में कुछ न लेता हूँ,
    फल-फूल मेरे, मेरी छाया,
    मैंने इनका सुख कब पाया,
    बोलो, मुझसा निःस्वार्थ कौन?"
    तीनों ही लोक रह गए मौन।
फिर चंद्र देख नीचे, बोला,
"क्या है कोई मुझसे शीतल?"
दे सके चंद्र को प्रत्युत्तर,
वो शीतलता किसके भीतर!
    भू पर दीपक के तले बैठ
    इक प्रणयी पतंगा बोल उठा,
    प्रीति ही है मेरा जीवन,
    मेरे जीवन का ध्येय मिलन,
    मैं यही चाहता हूँ-हो जाऊँ
    दीपक की लौ में विलीन,
    जल-जल अग्नि में मरता हूँ,
    पर दूर नहीं हट सकता हूँ,
    मुझसा अनुरागी और कौन?"
    तीनों ही लोक रह गए मौन।
हँसकर तब परमेश्वर बोले,
"माता है तुम सब से महान,
भू पर मेरा साक्षात रूप,
तेजस्विनी वह देदिप्यमान,
माता में शक्ति सृजन की है,
वह स्रोत नए जीवन की है,
माता है सबसे सहनशील,
माता है सबसे धैर्यवान,
नौ मास बोझ वहन करती,
हर पीड़ा, कष्ट सहन करती
    वह पुत्र-रक्षा हेतु अपने
    प्राणों क दाँव लगाती है,
    वह कोटि सूर्य से बढ़ कर है,
    हाँ, स्वर्ग से भी वह ऊपर है,
    उसका हिय सागर से अथाह,
    उसका ममत्व नभ से अपार,
    वह सुत को सत्य सिखाती है,
    सत्पथ ही सदा दिखाती है।
वह है निश्छल, वह है निर्मल,
मन कोटि चन्द्र से भी शीतल,
निष्काम प्रेम उसका तप है,
निःस्वार्थ त्याग की मूरत है,
हर क्षण-क्षण, हर सुख न्योछावर,
करती है माँ अपने सुत पर,
क्या तटिनी, चंद्रमा, क्या दिनकर,
क्या पेड़, पतंगा, क्या भूधर,
माँ के समक्ष हैं सभी तुच्छ,
माँ के चरणों की धूलि भर॥"