सृष्टि सृजन
Friday, June 07, 2013
Saturday, June 01, 2013
गुगली
राजनीति है खेल क्रिकेट का,
देश क्रिकेट मैदान हमारा,
पाँच दिनों का टेस्ट मैच है,
पाँच वर्ष घमासान हमारा.
टौस जीतकर जीतकर बैटिंग करने,
उतरी है सरकार देखो,
अपोजिशन पोजीशन में है,
गेंद हाथ तैयार देखो.
गेंदबाज के हाथों फेंकी गई,
बैट से टकराई वो,
इधर उधर ठोकर खा, बौलर
के हाथों में फिर आई वो.
फास्ट, स्पिन, गुगली, यौर्कर,
हर ट्रिक आजमा ली गई उसीपर,
इधर उछलकर, उधर उछलकर,
गेंद बना दी गई फटीचर.
कभी धम्म से लगी विकेट परपर,
गिरी, गेंद चकराए गई,
कभी गिरी इतना, फील्डर के
पैरों से टकराए गई.
कभी बाउंड्री पार पहुँचकर
गिरी, उसे मूर्छा आई,
इतनी खेली गई गेंद,
यों गिरी कि फिर उठ न पाई.
हार जीत के खेल खेल में,
भिड़ने को तैयार खिलाड़ी,
खींच तान में, कैच थ्रो में,
जनता गेंद बनी बेचारी.
सत्ता से छली गई,
अपोजिशन का वह हथियार बनी,
हिस्सा बन न सकी तंत्र का,
पाँच साल बेकार बनी.
लोकतंत्र के मंदिर में, बस
इतना ही स्थान हमारा,
राजनीति है खेल क्रिकेट का,
देश क्रिकेट मैदान हमारा.
जेंटलमेन का खेल न रहा,
क्रिकेट आज व्यापार बना है,
अंधाधुंध रूपये बरसाकर,
घपलों का बाजार बना है.
गेंद पटक ले कितना भी सिर,
लेकिन मैच पूर्व निश्चित है,
आन बचे या नैया डूबे,
इतना यहाँ कौन चिंतित है?
बैट्समैन ने कैच उछाला,
मगर फील्डर सोता है,
इधर डुबाकर अपना पैसा,
दर्शक बैठा रोता है.
सत्ता की इस लम्बी पिच पर,
नेतागण हैं मँझे खिलाड़ी,
ऐसा खेला खेल क्रिकेट का,
कमा कमाकर छप्पर फाड़ी.
मैच फिक्स है, सभी बिके हैं
चाहे देश गर्त में जाए,
फट जाए पौकेट, पर पैसा,
अपने ही पौकेट में आए.
जनता तो टैक्स देती है,
कोष पर्सनल भरते हैं,
जनता भूखे मरे, करोड़ों के
घोटाले करते हैं.
सोने की चिड़िया दोबारा,
बनता देश महान हमारा,
राजनीति है खेल क्रिकेट का,
देश क्रिकेट मैदान हमारा.
सत्ता हो या खेल,
सभी सिस्टम अंदर से सड़े हुए हैं,
नोच घसोंट रहे हैं वो,
हम फटे बौल से पड़े हुए हैं.
मिलते ही बल्ला सब चाहें,
सदा क्रीज पर टिक जाएँ,
पैसों कि इतनी भूख,
कि भारत बिक जाए तो बिक जाए.
भारत माँ इन संतानों को,
नम आँखों से ताक रही हैं,
हद की सारी सीमाएँ,
खुद ही शर्मा कर भाग रही हैं.
दुख होता है देख देखकर,
जन गण मन बन गए बिखारी,
भारत भाग्य उदय हो फिर से,
ऐसा कोई नहीं खिलाड़ी.
सबने अपना ही हित साधा,
सबने अपनी जड़ें जमाईं,
उड़े गेंद के परखच्चे, पर
सबने ऊँची शौट लगाई.
हाथों का बन गया खिलौन,
प्यारा हिंदुस्तान हमारा,
राजनीति है खेल क्रिकेट का,
देश क्रिकेट मैदान हमारा….
Sunday, May 12, 2013
तपस्विनी
आज तुम्हे मै हाथ पकड़ कर चलना सिखा रही हूँ,
बेटा इक दिन मेरी बैसाखी बन कर दिखलाना,
बिठा तुम्हें कंधे पर कैसे झूला झुला रही हूँ,
बेटा, इक दिन इन कंधों पर मेरा बोझ उठाना.
मालिन बन अपने उपवन का पुष्प सींचती हूँ मैं,
अपना सौरभ सदा सभी के जीवन में बिखराना,
बन कुम्हार मैं मिट्टी को साँचे में ढाल रही हूँ,
बेटा, तुम आगे अपना अस्तित्व भूल मत जाना,
हो खड़े स्वयं अपने पैरों पर चलना तो कुछ ऐसे,
रस्तों को भी पड़े तुम्हारे पाँव तले ही आना,
तभी साधना पूरी होगी होगी मेरे इस जीवन की,
चमक उठो सबकी आँखों में, सूरज बन दिखलाना,
नहीं माँगती मैं साड़ी, बँगला, गाड़ी, उपहार, भेंट,
पर जीवन के किसी मोड़ पर मुझे भूल मत जाना,
यही कामना है बेटे आकाश चूम लेना तुम,
अपनी माँ की घोर तपस्या ऐसे सफल बनाना.
Monday, April 22, 2013
स्वातंत्र्य की पुकार
हमारे देश को स्वतंत्र हुए छ्ह दशक से भी अधिक का वक्त बीत चुका है. इस स्वतंत्रता को पाने के लिये लाखों देशभक्त शहीद हुए, पर क्या हम इन शहीदों की शहादत का मान रखने में सफल हुए हैं ? क्या वास्तव में आज हम स्वतंत्र हैं ? निस्संदेह अब हम अंग्रेजों के गुलाम तो नहीं रहे, लेकिन हम विभिन्न समस्याओं के गुलाम हैं. हम अपने खुद के गुलाम बन बैठे हैं. इसी विषय पर मेरी यह कविता है –
सत्याग्रह द्वारा संघर्षों की संभूति भारत भू,
आजादी के मतवालों की है प्राणाहूति भारत भू,
लाखों बलिदानों की साक्षी है महाविभूति भारत भू,
यह गाँधी का सर्वोदय है,
यह भगत सिंह की जय जय है,
जलियाँवाला, गुजराँवाला, चौरी चौरा या चम्पारण,
वीरों के खूँ से सिंचा हुआ भारत की मिट्टी का कण कण,
यह त्याग चंद्रशेखर का है, यह लोकमान्य तिलक का प्रण,
इसकी आजादी है अमूल्य,
है हम सब का भारत अतुल्य,
पर सदियों के संघर्षों का हमने वजूद ही मिटा दिया,
ऐसी अमूल्य आजादी को क्षण भर में हमने लुटा दिया,
सर्वोदय को इतिहास के कुछ पन्नों के भीतर अटा दिया,
दे आमंत्रण बर्बादी को,
बेचा अमूल्य आजादी को,
है आज पुनः भारत भूमि को घेर रही रजनी काली,
स्वातंत्र्य बँध गया बँधन में हो रही गुलामी मतवाली,
फिर मिट्टी हमें पुकार रही है माँग रही लहू वकी लाली,
इतिहास रहा पुनरावृति कर,
होने वाला फिर महासमर,
पर ब्रिटिश नही इस बार विजय पानी है हमें अपने ऊपर,
संघर्ष हमारा उससे है, जो पनप रहा सबके भीतर,
जो हमें बाँटता जाति, धर्म, मजहब जैसे आधारों पर,
संघर्ष हमारा उनसे है,
एकता को खतरा जिनसे है,
संघर्ष हमारा जातिवाद का धंधा करने वालों से,
भारत को निज संपत्ति समझकर सौदा करने वालों से,
मजहब की आड़ में जनमानस को अँधा करने वालों से,
संस्कृति के ठेकेदारों से,
भारत माँ के हत्यारों से,
विविधताओं को बँटवारे की नींव बनाने वालों से,
पूर्वाँचल, तेलंगाना की माँग उठाने वालों से,
काश्मीर को भारत भू से पृथक बताने वालों से,
जिनको बँटवारा प्यारा है,
उनसे संघर्ष हमारा है,
क्षेत्रवाद का खेल खेलकर भारत भू बाजार बन गई,
उत्तर पूरब दक्षिण पश्चिम चारों तरफ दीवार बन गई,
भूमिपुत्र की थ्योरी जिस दिन हिंसा का हथियार बन गई,
बापू की आत्मा तब रोई,
आजादी दूर कहीं खोई,
भगत सिंह के लहू का कतरा हमको रहा पुकार है,
पर अंग्रेजों से नहीं हमें खुद से लड़ना इस बार है,
शत्रु है हमारा दुराचरण और शत्रु भ्रष्टाचार है,
हम सब में जाग उठा रावण,
नैतिकता का हो रहा पतन,
घपले घोटाले सुनना तो दिनचर्या का अनिवार्य भाग है,
बने देश के कर्णधार वो, जिनके दामन में स्वयं दाग है,
भारत भू की भक्ति नहीं इन भ्रष्टों का तो अलग राग है,
जनता की छाती पर चढ़कर,
खाना है पैसा पेट भर कर,
देखो भारत के भव्य इमारत की बुनियाद अधूरी है,
यह देश जहाँ कमीशनखोरी रिश्वत बहुत जरूरी है,
पर रोज कृषक का भूखे मरना महज एक मजबूरी है,
पैसों की भूख बढ़ी इतनी,
कि मानवता है बोझ बनी,
धिक्कार हमें जो रिश्वतखोरी को कर्त्तव्य बनाते हैं,
धिक्कार हमें जो किसी भ्रष्ट को वोट डालकर आते हैं,
सरकारों पर कानून व्यवस्था पर हम प्रश्न उठाते हैं,
उँगली उठाएँ हम खुद पर,
झाँकें पहले अपने भीतर,
हम गाँव गाँव तक लैपटौप टैबलेट पहुँचाने वाले हैं,
हम विश्व पटल पर इंडिया का परचम लहराने वाले हैं,
पर भूखे भारत में दो वक्त की रोटी के भी लाले हैं,
पैबंदों से झाँकते बदन,
को पी.सी. नहीं, चाहिए वसन,
आओ हम दें अंजाम आज आमूलचूल परिवर्तन को,
मार गिराएँ भीतर बैठे भ्रष्टाचार के रावण को,
पुनः जागृत कर दें मिलकर लोकमान्य तिलक के प्रण को,
इस मिट्टी में मेंनव प्राण भरें,
भारत का नव निर्माण करें,
सरोजिनी नायडू का स्वर हमको रहा पुकार हैं,
कि भ्रष्टाचार ही नहीं हमारे कई हजार हैं,
शत्रु देवी समपूज्य नारी पर बढ़ता अत्याचार है,
इंसान बना बना हैवान है,
सबमें बैठा शैतान है,
प्रतिदिन नारी देवी दुर्गा का रूप बताई जाती है,
आवरण हटा कर देखो, वह तो रोज सताई जाती है,
हर रोज कोई दामिनी, कामिनी, निर्भया बनाई जाती है,
प्रतिदिन करता है दुर्योधन,
भारत माता का चीरहरण,
संघर्ष हमारा उनसे जो करते नारी का सम्मान नहीं,
नारी तन भी है, मन भी है, संपत्ति या सामान नहीं,
कपड़ों में लिपटी देह नहीं, वह गुड़िया इक बेजान नहीं,
वह पायल की झनकार नहीं,
मनोरंजन का औजार नहीं,
नारे देने, मोमबत्ती जलाने से परिवर्तन क्या होगा,
क्या होगा आंदोलन से, क्या देने से धरना होगा,
परिवर्तन तो आचार विचारों में खुद ही करना होगा,
दुर्योधन न हावी हमपर,
हम युद्ध छेड़ दें खुद पर,
हमही युद्ध, हम्हीं योद्धा हैं, हम्हीं युद्ध का कारण हैं,
हम सब के ही बीच में छिपा किंतु कहीं निवारण है,
हमसे ही संभव भारत की स्वतंत्रता का विस्तारण है,
आओ तस्वीर बदल दें हम,
मिलकर खुद से लोहा लें हम,
भारत न दुबारा सोने की चिड़िया कहलाए नहीं सही,
हम चाँद पर पहुँचकर वहाँ बस्ती न बसाएँ नहीं सही,
लेकिन नंगा भूखा भारत भूमि पर हो न कोई कहीं,
भारत का फिर सर्वोदय हो,
हर दिन नवीन सूर्योदय हो,
जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा की संकीर्ण सोच भुला दें हम,
तोड़ गुलामी की जंजीरें फिर स्वतंत्रता ला दें हम,
भारत माता की खोई प्रतिष्ठा उनको पुनः दिला दें हम,
यह नई प्रतिष्ठा अक्षय हो,
हम खुद हमसे ही निर्भय हों,
हम हर शहीद के प्राणों की आहूति का सम्मान करें,
हम गाँधी के सर्वोदय की संभूति का सम्मान करें,
भारत भूमि की विविधताओं को नित नव रूप प्रदान करें,
हर कोना रामराज्यमय हो,
भारत भू की ही सदा जय हो ........
Sunday, November 04, 2012
अँधेरा छँटने दो
मेरी यह कविता हमारे भीतर व्याप्त नाउम्मीदी के, बुराईयों के अँधेरे के बार में है ; जिसने हमारे मन में घर कर लिया है . मेरी यह कविता उस अँधेरे को दूर करने का एक छोटा सा प्रयास है .
जाग उठे जीवन जगती पर,
विभा विभा अब सो जाओ,
युगों युगों का घोर अँधेरा,
छँटने दो, अब तो जाओ .
नव प्रभात का नवागमन हो,
उगने दो सूरज अंबर में,
बरसे अगणित रश्मि राशियाँ,
उजियारा फैले घर घर में .
मुरझाई कलिकाओं को,
नव प्राण मिले, हर फूल खिले,
खग विहंग पर खोलें,
उनको पुनः मुक्त आकाश मिले .
त्राहि त्राहि कर रहे गगन में,
आँचल न अपना फैलाओ,
जाग उठे जीवन जगती पर,
विभा विभा अब सो जाओ .
अहो कालिमा काल बनी है,
तम में डूबी दसों दिशाएँ,
भटक रहा मनुपुत्र राह में,
दिखता नहीं किधर जाएँ .
दो प्रकाश, दो दृष्टि धरा को,
मिटे घनान्धकार कण कण का,
हर्षित हो हर एक हिय,
ज्योतिर्मय हो पथ जीवन का .
जो भूले भटके मदांध जन,
अयि रजनी, उनको रोशन कर,
अंतर्मन के नेत्र खोल वे,
झाँक सकें खुद के भीतर .
रिक्त हो चुके हृदय कोष में,
उम्मीदों का संचय हो,
अंधकार से निर्भय हो,
मानवता का सर्वोदय हो .
नवजीवन दो नई उमंगें,
नई सुबह में खो जाओ,
जाग उठे जीवन जगती पर,
विभा विभा अब सो जाओ ..
Subscribe to:
Comments (Atom)
